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शब्द-असीमित

Price:   595 |  29 Dec 2019 12:00 AM GMT

शब्द-असीमित

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आलोचना की प्रत्यंचा पर तने हुए 'शब्द असीमित'

सद्य प्रकाशित देवेन्द्र आर्य द्वारा लिखित 'शब्द असीमितÓ एक सशक्त आलोचनात्मक गद्य संग्रह है । पांच गजल संग्रह, चार गीत संग्रह व दो कविता संग्रह रचने वाले देवेन्द्र आर्य एक मुकम्मल कवि हैं और इस गद्य की पुस्तक में उन्होंने कविता के शिल्प, कथ्य और छन्द विधान पर अपनी राय बेबाकी से रखी है। काव्यशास्त्रीय सिद्धांतों के परिप्रेक्ष्य में लिखी रचना एवं कवि-कर्म के मूल्यांकन में आर्य जी एक सिद्धहस्त गद्यकार के रूप में हमारे सामने आते हैं। 'गद्यं कवीनाम निकषं भवन्त्तिÓ (गद्य लेखक -/कवियों के लिए कसौटी है) यदि इस दृष्टि से इस पुस्तक पर प्रकाश प्रक्षेपित करें तो प्रतीत होता है, कि देवेन्द्र आर्य जितना गीत गजल पर अधिकार रखते हैं उतना ही गद्य पर। इस पुस्तक में 29 आलेख संग्रहीत हैं। गालिब, मुक्तिबोध, शमशेर, केदारनाथ, रघुवीर सहाय, देवेन्द्र कुमार, अदम आदि पर जहां उनके कविकर्म पर आलेख हैं वहीं कविता की प्रवृत्तियों, शब्दशिल्प, कथ्य और बिम्ब के प्रति एक संतुलित दृष्टिकोण इस पुस्तक में नजर आता है। आलोचना के क्षेत्र में 'शब्द असीमितÓ की सुगठित भाषा, तर्कपूर्ण विवेचन निश्चित ही मील का पत्थर साबित होगा इसमें राई-रत्ती भी संदेह नहीं है। इन आलेखों में देवेन्द्र जी किसी परिधि में रहने के बजाय विविधता की परिक्रमा करते हुए दिखाई देते हैं। वे शब्दों/पंक्तियों की चीर-फाड़ ही नहीं करते वरन उसे सुई धागे से बांधते हुए पर्याप्त मरहम पट्टी भी करते हैं-उनकी कहन और भाषायी लालित्य से पुस्तक में पठनीयता आद्योपांत बनी रहती है। पुस्तक का शीर्षक शब्द असीमित है।

'भाषाई हनक और कविता की तानाशाही लेख में लेखक भाषा को तोडऩे और नये शब्दों में गढऩे की प्रवृत्ति के प्रति चिंतित है। बदले हुए यथार्थ के अनुसार लेखक शब्द नहीं दे पा रहे हैं। सामाजिक परिदृश्य के परिवर्तन के साथ ध्वनियां भी लुप्त होती जा रही हैं जो कि चिंतनीय विषय है।

मुक्तिबोध का संघर्ष आंतरिक और बाह्य स्तर पर गहन व जटिल रहा है। वे समूची मानव जाति व वैश्विक फलक पर हस्तक्षेप करने वाले अभावग्रस्त किन्तु कर्मठ कवि रहे हैं। वे अपने समकालीनों में वरेण्य रहे हैं। उसका एकमेव कारण यह कि हम जो आज देख रहे हैं उससे वे पचास वर्ष आगे का फलक देख रहे थे। उनकी कविता न तो अपने आप में पूर्ण होती है और न ही उसके भावार्थ एकार्थ में व्यंजित होते हैं। उनके पदबंध अपने भीतर कई अर्थछवियां और कई संदर्भ-प्रसंग समेटे हुये रहते हैं। लेखक की दृष्टि में वे इस मामले में अद्भुत कवि हैं कि उन्होंने अन्तर्विरोधों से ही अन्तर्दृष्टि जागृत की। लेखक के अनुसार उनकी कवितायें उनकी जिंदगी के अनुभव से अलग नहीं। उनकी रचनाओं में परिव्याप्त अंधकार भी उनके निजी जीवन का अंधकार है। लेखक का यह कथन मुक्ति बोध निराला के बाद सर्वाधिक टे्रण्ड सेटर (दिशा निर्धारक) कवि हैं अपने विशिष्ट शिल्प और कथ्य के कारण मुक्तिबोध के बारे में बहुत कुछ कह जाते हंै। 'अंधेरे मेेंÓ उनकी दीर्घ रचना है जिसे उनकी अन्य रचनाओं के परिप्रेक्ष्य में ही समझा जा सकता है। ऊपर से ऊबड़ खाबड़ दिखने वाली उनकी रचनाएं अन्दर से न केवल तनाव विन्यस्त हैं प्रत्युत अत्यंत, नरम नाजुक और केन्द्रित चेतना से सम्पुष्ट भी हैं-मुक्तिबोध की यही गीत चेतना है और शैलीगत वैशिष्ट्य भी।

आखिर शमशेरियत क्या है? आलेख में लेखक ने शमशेर को बहुत गहरे अर्थों में सौन्दर्य का कवि माना है विचार का नहीं-कविता सबसे पहले कहन का सौन्दर्य ही है। लेखक के अनुसार शमशेर अव्यक्त को ही सबसे बड़ा वक्तव्य मानने यानी अप्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष मानने के बाद भी अस्तित्ववादी नहीं हैं। शमशेर बड़बोले कवि नहीं हैं। शमशेर ने कविताओं में नये शब्द गढ़़े। भाषा शिल्प में प्रयोग के कवि शमशेर भाषा सघन कवि हैं। शमशेर के भाषिक प्रयोग और इन्द्रियबोध दोनों ही असामान्य है। उनकी व्यंजना, विम्ब योजना अमिट है। लेखक का यह कथन-Ó रद्दी कविताओं की नींव पर ही अच्छी कविताओं की इमारत खड़ी होती है-खराब कविताओं के कच्चे माल से ही अच्छी कविताओं का फिनिश्ड प्रोडक्ट तैयार होता है लेखन की वास्तविकता से हमें रू-ब-रू कराता है। निराला और अज्ञेय के बाद काव्य शिल्प में विविध प्रयोगधर्मी कवि शमशेर अद्वितीय रहे हैं। और यही शमशेर की शमशेरियत है जो उन्हें अन्य समकालीन कवियों से जुदा बनाती है।

दलित विमर्श पर चिंतन करते हुए 'बीच का रास्ता भी होता हैÓ में लेखक ने दलित साहित्य के उद्भव और विकास पर प्रकाश प्रक्षेपित किया है। समकालीन राजनीति में दलित और उनकी सहभागिता आवश्यक है। सत्ता प्राप्ति में दलित का सहयोग वांछित है। साहित्य में दलित साहित्य, दलित विमर्श, जैसे कई विषय चलन में आये और उन्होंने अपना सांस्कृतिक प्रतिरोध व्यक्त करते हुए एक आक्रोष भरा साहित्य रचा है। नंगी सच्चाई का आंखो देखा भोगा आख्यान ही दलित साहित्य की पहचान रहा है। लेखक का यह भी मानना है, कि सदियों से अपरिभाषित दलित संस्कृति अब सवर्ण संस्कृति को अपदस्थ करने की मूल संवाहक बन गई है। हिन्दी कविता के प्रथम दलित कवि देवेन्द्र कुमार को अजातशत्रु मानते हुए लेखक का कहना है कि उनके गीत भाषिक संरचना और बिम्बों की देशजता में चमत्कृत करने वाले हैं। मूलत: गीतकार देवेन्द्र जी की भाषिक संरचना ही उनका वक्तव्य है।

'हिन्दी गजल आलोचना की दिक्कतेंÓ में लेखक का स्पष्ट अभिमत है, कि हिन्दी गजल दो पाटों के बीच पिस रही है। छंद विधान और व्याकरण फारसी का और लिपि तथा काव्य संस्कार हिन्दी का। गजल को सामंती विधा मानते हुए देवेन्द्र जी का मानना है कविता जितनी कविता के अन्दर है उतनी कविता के बाहर भी है-समकालीन हिन्दी गजल के लिए क्या यह प्रतिमान होगा? कविता का कविता के बाहर होने का आशय शब्दार्थ से अधिक ध्वन्यार्थ से है। हिन्दी गजल और उसके आलोचनात्मक अवदान पर यह लेख प्रकारांतर से कई परतें खोलता है। गजलों को अपना एकांतवास छोड़कर काव्यालोचना के अखाड़े में उतर कविता से दो-दो हाथ करने की जरूरत बताते हुए आव्हान लेखक ने इस आलेख में किया है।

'सौन्दर्य को माननीय बनाने वाले कविÓ आलेख में लेखक ने केन किनारे के कवि केदार भी काव्यधर्मिता पर पर्यात प्रकाश प्रक्षेपित किया है। जनतांत्रिक काव्य चेतना के कवि केदार मूलत: लयचेतना के कवि हैं। उनकी रचनाप्रक्रिया मूलत: प्रकृति और प्रेम के गीत रचनाकार की हैं। उनकी कथ्य और संप्रेषणीयता के केन्द्र बिन्दु में मानवीयता रही है। उनकी कविताओं का विश्लेषण करते हुए उन्हें सौन्दर्य को मानवीय बनाने वाले कवि के रूप में सुव्याख्यायित तरीके से आलेख में प्रस्तुत किया गया है। केदार के काव्य की विभिन्न कोणों से की गई पड़ताल से केदार का विवेचन अद्वितीय बन पड़ा है।

'कविता में बची हुई कविता को सलामÓ में देवेन्द्र जी कहना का है, कि कविता के बाहर किसी कवि की जो भाषा, जीवनशैली और जीवनलय को ही उसे उस कवि की कसौटी मान लेना चाहिए। कविता का कवि के जीवन से अटूट रिश्ता होते हुए व्यक्तिगत जीवन, साहित्यिक जीवन और सामाजिक जीवन टुकड़ों में नहीं जिये जाते। कविता में भाव, भाषा और विचार का त्रिभुज संरचना में समझ, सलीका और युगीन चेतना से मिलकर बनता है। लेखक का यह वाक्य कि कविता का गुण सहजता है सरलता कदापि नहीं। आज के दौर की सारी जटिलताओं को देखते हुए कविता से सहजता की मांग तो की ही जा सकती है। जीवन जीने के जितने सलीके हैं कविता भी उतनी ही तरह से लिखी जा सकती है- सोचने को बाध्य करता है।

'गीत आलोचनात्मक आत्मविश्लेषण की दरकारÓ में लेखक का स्पष्ट अभिमत है कि कविता का रिश्ता दिल से नहीं दिमाग से होता है। दिल ओ दिमाग का बेहतर संतुलन ही अच्छी कविता की पहचान है। संवेदना और विचार का संघर्ष कविता का काव्यात्मक संघर्ष है। लेखक का यह प्रश्न आखिर क्यों फिल्म जगत से जुड़े कैफी साहित्य में समादृत्त है परन्तु शैलेन्द्र नहीं? क्यों निदा फाजली मंच और फिल्मी लेखन से जुड़े होने के बावजूद हिन्दी के गंभीर अध्येताओं और कवि आलोचकों से मध्य समादरणीय है? गीत लिखने वाले गोरख पाण्डे और गजल लिखने वाले शलभ श्रीराम सिंह को क्यों नहीं कवि के रूप में स्वीकारा गया? सूर्यभान गुप्त जैसे अद्भुत काव्यचेतना के धनी गजल गीतकार को क्यों साहित्य में इतनी प्रतिष्ठा से नहीं नवाजा गया कि जितने के हकदार हैं? इन सब प्रश्नों के उत्तर आलोचना को अपने आत्मविश्लेषण करने पर खोजने होंगे। आशय यह है, कि आज की आलोचना भटकी हुई है। आलोचना के अपने-अपने खेमे और खूंटे है। गीत जो काव्य विधा की विशिष्ट शैली है उसे आधुनिक कविता की परिभाषा और पहचान से बाहर करने का एक सुनियोजित षड्यंत्र और अंतरजाल इन दिनों विकसित किया जा रहा है जो कविता के लिए हानिकारक है। गीत लिखना कोई आसान काम नहीं है अनुभूति से नि:सृत होने पर ही कोई गीत आकार लेता है। आलोचनात्मक आत्मविश्लेषण से कई मुद्दे उठाते हुए लेखक ने भविष्य की कविता के आकार और स्वरूप विषयक भी इस लेख की अपनी चिंता प्रकट की है जो कि समयोचित है- जनवादी गीत की पहचान के रुप में शोषित वंचितों की कविता माना गया। जनवाद रूमानियत का विरोधी है।

कविता लिखने छपने के बाद कवि उससे एक विशिष्ट दूरी बना लेता है जो कि अनवरत बढ़ती जाती है, जबकि पाठक के लिए वह नई होती है। रचनाधर्मिता के विकासक्रम में कवि का शिल्प और उसका काव्य व्यवहार परिवर्तित होना एक सहज प्रक्रिया है। कविता को दीर्घ जीवन उसके पाठकों से मिलता है। नये अर्थ जोड़कर नये अर्थ भर कर। संभव यह भी है जो अर्थ भरा जा रहा हो वह कवि का हेतु न हो। इसलिए कविता वहां अधिक होती है जहां उसके होने की न्यूनतम संभावना होती है। यह अभिमत लेखक का रघुवीर सहाय की काव्यधर्मिता के संदर्भ में है। रघुवीर सहाय की कविताओं में बोलचाल की भाषा का सधा हुआ प्रयोग है। किंतु उनका लेखन दिशा निर्धारक नहीं है। कोई निश्चित भाषा या किसी तयशुदा शिल्प से वे परहेज करते हैं। रघुवीरसहाय कविता को किताबों से मुक्तकर उसे लोगों के कान में डालने के आग्रही रहे हैं। उनका व्यक्तित्व सामाजिक, राजनैतिक संघर्ष के ताने-बाने से बना हुआ था। समय के भीतर आगे की ओर चलना उनके लिए नैतिक था। इन स्थितियों में रघुवीरसहाय बेशक जरुरी न हो पर हमारे काव्य जगत के जरुरत के कवि बन गये हैं। आलेख में लेखक ने उनके काव्यकर्म पर पर्याप्त प्रकाश डालते हुये उनकी रचनाओं पर अपनी बेबाक राय रखी है जो कि समीचीन है।

'लोक साहित्य एवं संस्कृतिÓ लेख में लेखक का मानना है, कि यह अधिकांशत: काव्य साहित्य ही है। इसकी प्रवृत्ति मूलत: सहयोग की रही है वहीं 'सावन का बिग बाजारÓ ललित निबंध की कोटि में आता है। तीज त्यौहारों और फागुन की फुहारों से रसप्लावित लेखक सावन की मस्ती का चित्र उकेरने में सफल हुआ है। सावन में मदमाती हुई महिलाएं उन्मुक्तता हेतु पीहर जाने को लालायित रहती हैं- सावन में उमंगों के झूले पर झूलते हुए मनोरथ हिलोरें लेने लगते हैं। भाषायी लालित्य की दृष्टि से निबंध बहुत सुंदर बन पड़ा है।

'कविता का कामुक चेहराÓ लेख में बाजारवाद के आधुनिक चेतनासंपन्न कवि पवन करन की तीन कविताओं पर अपनी दृष्टि फोकस करते हुए लेखक का अभिकथन है, कि कविता में नये प्रयोग, गोपन अनुभवों का प्रकटीकरण, भाषा की बाजीगरी और भीड़ से अलहदा दिखने का दृष्टिबोध ही सफलताबोध का पैमाना बन गया है। सच तो यह भी है कि हिंदी काव्य संसार में 'प्यार में डूबी मांÓ के बहाने मां को संभोगरत देखने का दुस्साहस कवि पवनकरन द्वारा ही किया गया है। इस सनसनी खेज रचना का उन्होंने प्रचारात्मक लाभ लिया। मध्यवर्गीय कुण्ठा व बोल्डनेस के नाम पर नंगापन परोसने वाली कविताएं हमारे शालीन समाज में अस्पृश्य है। इसी क्रम में उनकी एक और रचना 'स्तनÓ में स्तनमर्दन सुख का काव्यात्मक वर्णन कर कवि क्या कहना चाहता है? प्रगतिशीलता के नाम पर स्त्री की ऐसी नंगई पर लेखक अपनी संवेदना प्रकट करता है। पवनकरन के काव्य दृष्टिकोण पर लेखक का अभिमत है, कि 'ब्राÓ कंपनियों के बाजारु दृष्टिकोण से यह दृष्टिकोण कतई अलग नहीं है। स्त्री देह में छपकइया मारने में महारत हासिल कवि स्त्री मन में छिछले भी नहीं उतर पाता न तो 'स्तनÓ में और न ही 'प्यार में डूबी मांÓ में। पवन का यद्यपि 'स्त्री शतकÓ काव्य संग्रह ज्ञानपीठ से भी प्रकाशित हो चुका है पर पवन की कविताओं में स्त्री का आना उसकी देह का अनावृत्त होना असहनीय सा लगता है जिसमें मां के हृदय में व्याप्त ममता के कहीं भी दर्शन नहीं होते। 'कास्टिंग काउचÓ का शिल्प अख्तियार किये हुये उनकी रचनाएं एक सनसनी तो पैदा करती हैं साथ ही कविता की मार्केटिंग भी करती है। लेखक के अनुसार विषय वस्तु का नया होना कविता का साध्य है अथवा साघन इस पर बहस होना जरुरी है।

ग़ालिब पर अपने आलेख में लेखक ने उन्हें नामचीन सांसारिक शायर बताया है- वे चुनौतीपूर्ण समय में चुनौती देने वाले शायर हैं। अपने संघर्षपूर्ण जीवन में गालिब कल्पना प्रवण कवि हैं पर अनुभूति की गहराई जितनी 'मीरÓ में हैं उतनी गालिब में नहींं। गालिब ने अपने जीवन काल में तीन मुगल सम्राटों को गद्दीनशीन और बेताज होते देखा था। हिंदुस्तान के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को उन्होंने अपनी पुस्तक 'दस्तम्बूÓ में कलमबंद किया था- एक तरह से यह स्वतंत्रता संग्राम का चश्मदीद दस्तावेज था- पारिवारिक स्थितियों ने यदि उन्हें अपनी डायरी विनष्ट करने को विवश न किया होता तो संभव है कि हमारे पास 1857 के संग्राम का एक विराट दस्तावेज होता और हम किंतु-परंतु की अटकलों से अपने आप को विमुक्त पाते।

'स्तरीयता और लोकप्रियता में द्वंद्वÓ में मुनब्बर राणा के संबध में लेखक का कथन है, कि स्तरीय और लोकप्रिय होना दोनों विरोधाभासी हैं। जो स्तरीय है वह लोकप्रिय नहीं हो सकता मुनबबर की शायरी का परिवार के विषयों पर की गई शायरी अधिक है। चुस्त जुमलेबाजी और यारबाश होना उनकी प्रवृत्ति और प्रकृति दोनों हैं। उनका शायरी की दुनिया में योगदान मां पर कहे गये शेर हैं- साहित्य में मां एक ऐसा विषय है जिस पर संवेदनात्मक मुलम्मा चढ़ाकर आप पाठकों की वाहवाही लूट सकते हैं। ठीक वैसे ही जैसे राजनीति पाकिस्तान या भ्रष्टाचार पर आप काव्यात्मक सस्ती टिप्पणी कर श्रोताओं की अनगिनत तालियां बटोरकर सफल मंचीय कवि का टीका अपने माथे पर लगा लेते हैं। उन्होंने मंच पर मां को एक भावनात्मक रूप में परोसा है। लेखक का मानना है कि अपनी शायरी में मुनब्बर कई जगह विरोधाभास निर्मित करते रहे हैं और जो उर्दू के जानकार/फनकार हैं वे मां फेम मुनब्बर की इस अदा को बखूबी जानते हैं।

'अदम: एक किसान गजलगोÓ में लेखन का मानना है, कि हिंदी गजलों में दुष्यंतकुमार के बाद यकीनन सबसे चमकदार नाम अदम का ठहरता है। आपातकाल के दौरान दुष्यंत ने यदि गजलों को राजनैतिक मुहावरा दिया तो अदम ने उसे जनवाद की धार दी- जो काम धूमिल ने कविता को सड़क की जुबान देकर किया था अदम ने वही काम गजलों को चौपाल की भाषा से नवाज कर किया। अदम गांव की बैठकी तक ही बने रहे। गांव से जुड़े दूसरे रचनाकार बसते तो शहर में है पर गांव आते जाते रहते हैं इसलिए उनकी स्मृति में गांव रहता है और रचना प्रक्रिया में भी- इसके विपरीत अदम गांव में रहते थे और शहर आते जाते रहे। अदम की सामाजिक राजनीतिक पाठशाला गांव गुरुवों की पीड़ा और संघर्ष में थी। अदम की गजलों में असंतोष तो है पर आत्मीयता नहीं। उसमें गुस्से का इजहार है। झकझोर देने वाली सच्चाई, ताप और सपाटबयानी अदम के अलावा कोई भी गजलकार अख्तियार नहीं कर सका- शायरी की दुनिया में अदम अंतत: किसान रहे। उनकी गजलें बेलाग अभिव्यक्ति और श्रमसौंदर्य की गजलें हैं। तबस्सुम, चांद, गुलाब और आइने की नहीं। कविता में ललकार यदि कवि किसी के पास है तो अदम उस ललकार के एक मात्र प्रतिनिधि गजलकार ठहरते हैं। इस प्रकार अदम अपनी पूरी किसानियत के साथ जनवादी हुंकार के प्रतिनिधि गज़लगो बन गए हैं। उनके तेवर उनकी सपाट बयानी और दो टूक कहने की क्षमता उनकी आत्मिक निश्छलता के उपादान हैं। दिमाग से दुरुस्त और दिल से साफ व्यक्ति ही ऐसी खरी खोटी कहने की हिम्मत रखता है।

यह सत्य है, कि साहित्य मानवीय संवेदना और जनचेतना का विस्तार करता है। समाज और साहित्य के प्रत्येक स्पंदन पर उसके कान लगे रहते हैंं। बेहतर से बेहतरीकरण ही उसका लक्ष्य रहता है। समय के साथ गीत/ कविता/ गजल के काव्यशिल्प में परिवर्तन होते रहे हैं और देवेंद्र जी इन आलेखों में इन तथ्यों से कतई अनभिज्ञ भी नहीं हैं। पुस्तक के कई आलेखों में लेखक ने साहित्य की व्यावसायिकता, बाजारीकरण और चेकवाद पर अपनी बेबाक राय रखी है और जहां-जहां उन्हें साहित्य में स्खलन की जरा सी भी बू आई हैं वहां वे कान उमेठने से भी अपने आप को नहीं रोक पाये हैं।

यद्यपि देवेंद्र जी जनवादी खेमे से आते हैं पर उनके यहां जनवाद सूरदास की तरह बांह पकड़कर कसकर भींचता नहीं हैं और न ही कसकर चांपी लगाता है। वे उन सजग और सावधान कवियों में से हैं जहां उन्हें कोई गलतबयानी सच कहने से रोक नहीं सकती। संवेदना और 'सांची कहों तो क्यों डरौंÓ उनका ध्येय वाक्य है और उसकी चमकदार और धारदार अभिव्यक्ति ने ही उन्हें आज लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचाया है।

समीक्षा की जननी आलोचना है। गद्य में उनकी संभवत: यह पहली पुस्तक है। उनका गद्य तर्क और समाधान की पीठिका पर आश्रित हैं। सभी आलेख भाषाई कसावट और अध्ययन की पीठिका पर समीक्षा की चौहद्दी से निकलकर आलोचना की देहरी पर पहुंचते हुए प्रतीत होते हैं। वे न केवल घिसीपिटी परंपराओं को धता बताने का काम करते हैं प्रत्युत काव्यशास्त्रीय परंपराओं की ओर भी ध्यानाकृष्ट करते हैं। अशोक वाजपेयी विश्वनाथ त्रिपाठी और डा. विजयबहादुर सिंह जैसे नामचीन आलोचकों की परंपरा को आगे बढ़ाने में 'शब्द असीमितÓ निश्चित ही मील का पत्थर साबित होगी इसमें कोई संदेह नहीं।

- प्रकाशक : यश पब्लिकेशन , दिल्ली

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